एड्स का नाम आते ही एक सिहरन सी पैदा होती है। हम सब बस खुश हो लेते हैं की उपर वाले ने हमें बचाए रखा है, और कुछ दुखी भी हो जाते है उनके लिए जो इस भयानक बीमारी के शिकार हैं। बस हो गयी हमारी चिंता ख़त्म। कुछ ऐसी ही सोच थी मेरी, पर जिस दिन इस बीमारी से ग्रसित छोटे छोटे बच्चों से सामना हुआ तो अपने उपर बहुत क्रोध आया। कुछ समय पहले काम के सिलसिले में मैंगलूर स्थित एड्स से पीड़ित बच्चों के अनाथालय जाना हुआ। काम था एक ऐसी डॉक्युमेंटरी बनाने का जिसके ज़रिए कुछ फंड उगाहा जा सके। काम के दौरान ही एक कर्मचारी की बात ने मुझे झकझोर कर रख दिया। मैने कहा हम कर ही क्या सकते है इन बच्चों के लिए, ज़्यादा से ज़्यादा कुछ पैसे दे सकते है। उसने जो उत्तर दिया वो मैं वैसा ही लिख रहा हूँ, " सर ग़रीबी पैसों की नही ग़रीबी दिल की है, पैसे देने वाले तो बहुत है पर इन बच्चों के साथ समय गुजारने वाले बेहद कम। ये बच्चे सिर्फ़ कुछ समय चाहते है, कोई इनके साथ आए और खेले।" हम अपनी दुनिया मे मस्त जीते है, इंटेलेक्चुयल टाइप जमाने भर की चिंता लिए। ज़्यादा हुआ तो कुछ चर्चा कर ली और चिंता जाहिर कर दी। जिस अनाथालय की मैं बात कर रहा हू उसका नाम 'संवेदना' है। संवेदना से अब मेरा गहरा नाता है, हर हफ्ते वाहा जाने की कोशिश करता हू। ना तो मैं उनकी भाषा समझ पता हू ना वो मेरी, पर एक रिश्ता है। अगर हम अपनी व्यस्त ज़िंदगियों से कुछ समय निकाले तो कितनी खुशियाँ बाँट सकते हैं। संवेदना के बारे में आगे भी लिखता रहूँगा।
Sunday 16 March, 2008
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2 comments:
विकास सच कहते हो ,ओर यह छोटी छोटी बाते बहुत बडे अर्थ रखती हे,सहनुभुति यह भी एक सच्ची पुजा हे,आप के विचार बहुत अच्छे हे.
राज जी, उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद.
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