name='verify-cj'/> चलते चलते: आफ़िस से घर तक

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Monday 23 June, 2008

आफ़िस से घर तक

एक दिन और ख़त्म और आज फिर घर जल्दी आ गया. एक मित्र ने कर्नाटिक संगीत की सी.डी भेंट की थी, इसे समझने की कोशिश जारी है. समझ मे कुछ खास नही आ रहा है पर एक कशिश है. किसी ने सही कहा है संगीत भाषाओं की सीमा से परे है. संगीत जब दक्षिण को है तो आज खाने मे भी सांभर ही सही रहेगा. कुछ लिख लूँ फिर सोचूँगा कैसे बनाना है. जैसा मैने कल लिखा था पोस्ट मे कि किसी का इंतज़ार है, इंतज़ार तो ख़त्म हुआ पर पूरी दुनिया ही उलट पुलट हो गयी है. मेरी ये मित्र जो एक बड़े अख़बार मे रिपोर्टर है ने सारा तानाबाना ही उलट दिया है. अब रिपोर्टर हैं तो ज़बान तेज़ होगी ही. क्या करूँ , कल तक मैं सोचता था कि मेरा घर काफ़ी दर्शिनिय है, समंदर के किनारे है. आज पता चला कि घर कैसे रखा जाता है. यकीन मानिए, मैं तो काफ़ी खुश रहता था कि मेरा घर अपने सभी पुरुष मित्रों के घर से स्वक्ष् रहता है. आज भ्रम टूट गया. घर लौटा तो लगा कि किसी दूसरी दुनिया मे हूँ. क्या सिर्फ़ महिला और पुरुष का अंतर है या सोच का? जिसे मैं साफ समझता था मेरी मित्र ने उसे कबाड़खाना करार दिया. क्या ये मान लेना सही है कि महिलाएँ तो पुरषों कि बराबरी हर जगह कर रहीं है पर पुरुष शायद ऐसा नही कर पा रहें है. आराम से लिख रहा हूँ क्यूंकी इन्हे हिन्दी नही आती नही तो दो घंटे कि बहस तो सामने थी समझिए. खैर मैने टाइम्स और ए.पी दोनो ही जगह महिला रिपोर्टर्स को काम करते देखा है और मुझे कोई तकलीफ़ नही है कहने मे कि वो बेहतरीन काम करतीं हैं.बस अब हमे ही कुछ आगे बढ़ना है. तो मैं नोट बनता हूँ कि क्या कैसे रखना है आपसे कल फिर बात होगी.

3 comments:

Udan Tashtari said...

चलिये आप नोट बनाईये आराम से,
हम चलते हैं काम से.

mamta said...

ठीक है कल फ़िर आते है। :)

सुजाता said...

सही है , आप सोचिये और आगे बढिये । कल मिलते हैं !