एक घुटन सी होती है. सब कुछ रुका सा लगता है. मन में एक अज़ीब सा अंतर्विरोध है. अंदर से एक आवाज़ चीख चीख के कहती है कि इस मायाजाल को समाप्त करो. सब रेत पे पड़े पानी की तरह है कब उड़ जाएगा पता नही. सब तरफ एक अज़ीब सी बनावट है और हर चीज़ रंगी हुई है. कुछ देखना है तो रंग कुरेदना होगा पर कैसे? ये रंग तो चिपक गया है और निकलता ही नही. इन रंगो की बेरंग होली मे हम भी कही गहरे डूबे नज़र आते हैं. मन कहता है चल रे अपने देश, जहाँ रंग लगेगा भी तो कम से कम मिट्टी की महक तो साथ होगी. मन मे उत्साह होता है पर कदम साथ नही देते. इन कदमों को शायद मायावी दुनिया की ज़्यादा समझ है. ये अर्थशास्त्र के आकड़ों को बेहतर समझतें हैं. मन कहता है भाड़ मे जाए अर्थशास्त्र और मायाजाल अपनी तो खाक गंगा किनारे ही लिखी है. मन के बस मे शरीर नही है और आज के युग का सच भी शायद यही है. मेरे अंदर ये अंतरयुद्ध चलता रहता है, जाने क्यूँ आज लिख दिया.
Friday, 11 April 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
3 comments:
अंतर-युद्ध शाश्वत सच है, हर युग का। चलने दीजिए। इसी मंथन से बहुत कुछ नया निकलता है।
मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है.
बहुत अच्छा लिखते हो…
जीवन के रंगों का गहरा अंतर्द्वंद भी सजल शब्दों से किस प्रकार निखार जाता है… यह यहाँ दिखा है…।
Post a Comment