name='verify-cj'/> चलते चलते: March 2008

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चलते चलते कुछ सुनिए और कुछ सुना जाइए।

Wednesday 26 March, 2008

ब्रिटिश मीडिया ने कराई प्रिन्स हैरी को आफ्गानिस्तान कि यात्रा


मीडिया अगर जनता को ये बताए की वो उन्हे पूरा सच नही बताएगा तो स्थिति विकट हो जाएगी. कुछ ऐसा ही ब्रिटेन मे हुआ. ब्रिटिश मीडीया ने एक डील के तहत प्रिन्स हैरी की आफ्गानिस्तान मे तैनाती की खबरें लोगों तक नही पहुचाई. पूरे विश्व में मीडिया आर्थिक दबावों से घिरा हुआ है और अगर ऐसी डील की जाती रही तो मीडिया को संकुचित होने में समय नही लगेगा. इस तरह के बेमानी फ़ैसलो से पत्रकारों और और समाज दोनो का ही घाटा होगा. ये मेरे लिए चिंता का विषय है. इस डील से ब्रिटिश मीडिया ने अपनी हालत सरकार के लिए कम करने वाली पी.आर एजेन्सी जैसी कर ली. आप कहेंगे की अगर ब्रिटिश मीडिया ने ऐसा किया तो ग़लत क्या है? आख़िर प्रिन्स के आफ्गानिस्तान मे होने की ख़बरे बाहर आ जाती तो उनके साथ कई फ़ौजियों की जान को ख़तरा हो सकता था. सही है, मीडिया को राष्ट्रीय त्रासदी के समय सरकार का साथ देना चाहिए. पर इस मामले मे तो कोई त्रासदी नही थी. प्रिन्स हैरी को आफ्गानिस्तान जाने की कोई आवश्यकता नही थी. उनकी वहाँ उपस्थिति से ब्रिटिश फौज की सफलता के आकड़ों मे कोई खास फराक तो नही पड़ा.उनके लिए बहादुरी की बात तब होती जब वे अपनी व्यक्तिगत इच्छाएँ पूरी करने की जगह साथी जवानों की सुरक्षा का ख़याल करते. सरकार को पता था की प्रिन्स की वार ज़ोन मे तैनाती से जवानों की जान जाने का ख़तरा बढ़ जाएगा पर फिर भी उन्हे भेजा गया. इसका विरोध करने की जगह मीडिया ने सरकार का साथ दिया. जिस तरह से प्रिन्स के वार ज़ोन छोड़ने के वीडियो और चित्र मीडिया में आए उससे साफ हो गया की सब कुछ पहले से तय था. सरकार के लिए तो दीवाली मन गयी, प्रिन्स को वार ज़ोन के दर्शन भी करा दिए और हीरो भी बना दिया. इन सबके बीच किरकिरी मीडिया की हुई. अपने बचाव में मीडिया ने तर्क दिया की प्रिन्स असली वार ज़ोन से दूरी पर थे. फिर उन्हे हीरो क्यूँ बना दिया? इसी से साबित हो जाता है की सब कुछ एक ड्रामा था.अगर इसी तरह की घटनाएँ होती रही तो वो दिन दूर नही जब लोंग मीडिया का विकल्प तलाशने में जुट जाएगें. ब्लॉग इस समय सबसे सशक्त विकल्प है. प्रिन्स हैरी की तैनाती की खबर भी सबसे पहले एक ब्लॉग पर ही आई थी.

Monday 24 March, 2008

पानी का पत्रकार- एक प्रेरणा


२० मार्च को हमने विश्व जल दिवस मनाया। जल से जुड़े मुद्दों पर इस दिन मीडिया मे कई रोचक खबरें आती है। इस बार भी लगभग हर चैनल (नौटंकियों को छोड़ के) पर कुछ खबरें आई। ब्लॉग जगत में भी कुछ रोचक लेख पढ़ने को मिले। मेरा दिमाग़ कुछ धीरे और अपने सुर ताल से काम करता है, सो ये पोस्ट २० मार्च की जगह आज आ रही है। जहा मीडिया में पर्यावरण से जुड़ी खबरों का आकाल रहता है और ग्रीन पत्रकारों को कम ही बोलने और लिखने का मौका मिलता है, एक पत्रकार ऐसा भी है जो पूरी तरह से पानी से संबंधित मुद्दों को उठाने में सालों से लगा हुआ है। Shree Padre, इन्हें हम पानी का पत्रकार भी कह सकते हैं। श्री का गाँव मंगलूर और कासरगोड के बीच पड़ने वाली हरी भारी वादियों मे स्थित है। ये गाँव भी Western Ghat की कई खूबसूरत वादियों के तरह मनोहारी है।यहाँ लोंग जीविकोपार्जन के लिए खेती पर निर्भर हैं। भारत के इस हिस्से में पान और सुपारी की खेती जम के होती है। श्री का परिवार भी लंबे अरसे से खेती मे ही रचा बसा है। १९८५ में वनस्पति शास्त्र मे पी.जी करने के बाद जब श्री अपने गाँव लौटे तो उस वक़्त खेती की हालत बेहद खराब थी। किसानों के पास जानकारी का अभाव था, ऐसे समय में श्री नें पत्रकारिता को चुना। श्री ने 'आडिके' नाम से एक पत्र निकालना शुरू किया और देखे ही देखते ये पत्र किसानो के बीच लोकप्रिय हो गया। किसानों के पास अब खेती की ताज़ा और अच्छी जानकारी मौजूद थी। तब से शुरू हुआ ये सिलसिला आज भी जारी है। पिछले कुछ वर्षो से श्री पानी से संबंधित समस्याओं पे लगातार रिपोर्टिंग कर रहे हैं। उनके नियमित लेख अँग्रेज़ी और कन्नड़ की पत्र पत्रिकाओं मे आते रहते हैं। rain water harvesting को श्री पानी की कमी की समस्या से निपटने का सबसे महत्वपूर्ण साधन मानते है। श्री के शब्दों मे ये एक साइंस है और इसपे और शोध किया जाना चाहिए। किसानो के लिए समर्पित श्री कहते हैं मेन स्ट्रीम मीडिया में किसानों के लिए कम ही जगह है। श्री ने एक वेब पोर्टल को दिए साक्षात्कार मे कहा, "Those who grow never write; those who write don't grow". 'आडिके पत्रीके' ने नयी तकनीक और पुराने आज़माए हुए कृषि नुस्खो को western ghat के लगभग हर किसान तक पहुचा दिया है। आज 'आडिके पत्रीके' के ७५ हज़ार से ज़्यादा पाठक है। श्री ने उस मिथक तो तोड़ दिया की सफल अख़बार सिर्फ़ धनाढ्य घराने ही चला सकते हैं।
श्री की राह इतनी आसान नही थी, कुछ किसान जो पढ़ नही सकते उन तक समाचार कैसे पहुचेया जाए ये एक समस्या थी। श्री ने एक नायाब तरीका निकाला, उन्होने रिपोर्टरों की एक टीम बनाई जो की जो किसानो को चौपाल लगाकर जानकारी देने लगी। ये तरकीब काम कर गयी और अनपढ़ किसानों को भी सार्थक पत्रकारिता का लाभ मिलने लगा। श्री ने कई किताबें भी लिखी हैं।मेरा प्रयास है की श्री के साथ एक इंटरव्यू किया जाय। आशा है वो समय देंगे और ब्लॉग पर उनका साक्षात्कार शीघ्र उपलब्ध होगा। श्री के बारे में और जानने के लिए ये लिंक देखे---
http://www.worldproutassembly.org/archives/2006/02/the_rain_man_of.html

Sunday 23 March, 2008

बोलो जय जवान और भूल जाओ


२३ मार्च, १९३१ को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी दी गयी थी। आज इन शहीदों की पुण्यतिथि से जुड़ी कुछ खबरें चैनेलों पर रुक रुक के आ रही हैं। अख़बारों मे कुछ कोने रंगे गये है। ब्लॉग जगत मे भी कुछ हलचल है। मुद्दा हर मंच पर यही है की हम अपने शहीदों का सम्मान नही करते, उनके नाम पर पार्क और पुतलों आदि का निर्माण तो कर दिया जाता है पर कोई देखभाल नही करता। सही है, आज चिंता कर ली कल ख़त्म। फिर से किसी शहीद की पुण्यतिथि आएगी और फिर रंगे जाएगें कुछ काग़ज़। ठीक ही तो है, जब हम अपने जवानों की चिंता नही करते तो फिर शहीदों की चिंता कौन करे। हमारे जवान बुरी हालत में काम करते है। आप कहेंगें सेना में तो काफ़ी आधुनिकरण हुआ है, सच है, पर ज़्यादा तर हथियारों और युद्ध अभ्यास पर खर्च किया जाता है। अगर एक जवान की बात करे तो उसका वेतन आज भी ६ से ७ हज़ार रुपये ही है। एक नज़र डालते हैं हमारे पड़ोसी मुल्कों के जवानो को मिलने वाले वेतन पर।श्री लंका की आर्मी के एक जवान को ३०,००० रुपये का आरम्भिक वेतन मिलता है. ( source- http://www.groundviews.org/). पाकिस्तान के जवानों को भी भारतीय जवानो से दोगुना वेतन मिलता है। लगातार दबाव में काम करने वाले जवानों की अक्सर अपने अफसरों से कहासुनी हो जाती है। 'जवान ने अफ़सर की हत्या की' , ऐसी खबरें अब आम हो गयी है। सेना के रहनुमा कहते है की जवानो को तनाव से मुक्ति दिलाने के लिए विशेष कदम उठाए जा रहे है, योग आदि। अच्छा है, करना चाहिए पर वेतन के बारे मे कोई कुछ नही कहता है। सुभाष चंद्र बोस ने कहा था 'तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूँगा', लाखों नवजवान नेता जी के आवाहन पर सेना में शामिल हो गये थे। आज के युग में सबकुछ बाज़ार तय करता है, ऐसे में अगर जवान तनाव में है तो उसकी हालत समझी जा सकती है। अगर वेतन अच्छा मिले तो कम से कम अपने परिवार को सुख दे पाने की खुशी मे ही ये सैनिक खुश रह सकते है। अगर अफसरों की बात करे तो यहाँ भी स्थिति कोई खास अच्छी नही है। आज भी भारतीय सेना में अफसरों के ११,२०० पद खाली हैं। आम तौर पर भारतीय अफ़सर सेना से ३०, ४० या ५० से ६० की उमर में रिटायर होते है। सरकार के पास पेंशन देने के अलावा कोई और योजना होती नही। कार्पोरेट सेक्टर भी इन अफसरों के प्रति उदासीन रवैया ही रखता है। सेना मे बिताए गये समय का अनुभव किसी भी कंपनी के लिए फ़ायदेमंद हो सकता है। पर जमाना तो यंगीस्तान का है तो इन अफसरों को कौन पूछे।अगर अमेरिका जैसे देशो में कंपनियाँ ऐसा रवैया दिखाए तो सरकार उनके खिलाफ कदम उठा सकती है। भारत मे तो सरकार के पास कितने ही काम है, ऐसे तुच्छ काम के लिए समय कहाँ है। हमेशा की तरह मीडिया भला ये मुद्दा क्यूँ उठाए, बिकने वाला न्यूज़ आइटम थोड़े ना है। आप भी सोचेंगे क्या सिनिकल आदमी है पर इस देश मे कौन नही है?

Saturday 22 March, 2008

होली विद कुरकुरे एंड पेप्सी


जौन सा भी चैनल देखो होली है, ब्लॉग देखो तो होली है। हमे लगा हमही सबसे अभागे है, सब होलिया रहे है और हम इडली डोसा चबा रहे है। हमारे अपने शेट्टी साहब सुबह सुबह मिल गये और दे डाली होली की बधाई। हमने स्वीकारी और आगे बढ़ गये। सुबह से कई ब्लॉग पढ़े , सब पे होली की कोई ना कोई कहानी चल रही है। हमने कहा असल में ना सही, ब्लॉग पे ही होलिया लेते है। पर कुछ सूझ नही रहा था की क्या लिखे। भला हो शेट्टी साहब का की हमे पोस्ट लिखने का कारण मिल गया। १ बजे के आस पास वो बोले होली तो आपका बड़ा त्योहार होता है। हमे कोफ़्त हो रही है की आप अकेले बैठे हैं। जाने कहा से आज इस उत्तर भारतीय के उपर उन्हे प्यार आया और बोले चलिए आपको होली के एक कार्यक्रम में ले चलते है। हम चौंक गये, मंगलूर में होली? खैर गये। नज़ारा देखिए, हमारे कुछ सहियोगी (सभी दक्षिण भारतीय और कुछ विदेशी) जमा है होलियाने। हमने कहा यार हमे तो किसी ने बताया नही की कोई कार्यक्रम है। पता चला सुबह से बुद्धू बक्सा देखते देखते शेट्टी साहब को लगा की कुछ करना चाहिए। तो, ये कार्यक्रम उनके दिमाग़ की उपज थी। किया क्या जाय किसी को नही मालूम। हमने कहा चलो हम ही पहल करते हैं। ये क्या, ना तो कीचड़ है, ना रंग से भरा कोई टैंक, न कोई बालीवुड गाना, ना कबीरा। अब भैया इन सबके बिना तो कभी होली खेले नही थे। का करते, कुछ गुलाल उठाया और सबको लगा दिया। अब का करे, तभी किसी को अड़ीया आया गाना गाते है। शुरू हुआ, गाना वो भी अँग्रेज़ी। हम भी सोचते रहे, ई कौन सा होली है भाई। गाना वाना ख़तम हुआ, हम सोचे शायद अब भांग लाई जाएगी। ई का, कुरकुरे का पैकेट और पेप्सी निकली। पेप्सी हाथ मे लिए याद आ गयी लोकनाथ की कपड़ा फाड़ होली की, घर की बनी गुझिया, बड़े हनुमान जी के पास मिलने वाली भांग की। कार्यक्रम ख़त्म हुआ और चल पड़े घर की ओर। कुछ गर्व था की हम भी कह सकते है की एक बार होली सभ्यता से मनाई थी। पर होली का मतलब क्या असभ्य होना होता है? पता नही काफ़ी लोंग तो कहते है, पर हमको तो उही इलाहाबादी वाली होली ही पसंद है। कोई असभ्य कहे तो ठेंगे से। अंत मे सबको होली की शुभकामनाएँ और हमारे सभी सहियोगियो को कुरकुरे वाली होली के लिए धन्यवाद।

एक पत्रकार की कहानी





हम भारतीय मीडिया की आलोचना या तारीफ (गाहे बगाहे) करने में मगन रहते है। मेरी कोशिश है कुछ ऐसी कहानियों को सामने लाने की जो प्रेरणास्त्रोत हैं। इसी कड़ी में आज बात करते है कनेडियन क्राइम रिपोर्टर Michel Auger की। माइकल ने क्राइम रिपोर्टिंग के नये कीर्तिमान स्थापित किए है। ९० के दशक मे कनाडा में क्राइम अपने चरम पर था और इसी समय माइकल ने Canada Le Journal de Montreal अख़बार मे क्राइम रिपोर्टिंग को नये आयाम दिए। ख़ासकर बाइकर गिरोहों का आतंक सबसे ज़्यादा था। माइकल ने लगातार इनके खिलाफ रिपोर्टिंग की और कइयों का पर्दाफाश किया। ज़ाहिर है कई दुश्मन भी बनाए। रोज़ की तरह काम से लौट रहे माइकल को १३ सितंबर, २००० को गोलियों से भून दिया गया। ६ गोलियाँ शरीर मे धसने के बाद भी माइकल ने अपने स्टाफ को रिपोर्ट किया और घटना की जानकारी दी। शायद उन्हे इस खबर की महत्ता का अंदेशा रहा होगा। ऐसी जीवटता वाले इंसान बेहद कम होते है। चार महीने तक अस्पताल मे इलाज कराने के बाद माइकल अपने डेस्क पर वापस थे और जो उन्होने कहा वो मैं यहा चिपका रहा हू। "I realised I had to go back to work, that it wouldn't be a crminal who decided the date of my retirement." इस घटना के बाद माइकल ने अपने परिवार से वादा किया की वो फिर से क्राइम बीट पर वापस नही जाएगें पर एक हफ्ते बाद माइकल वही कर रहे थे जिसके लिए उन्हे जाना जाता है। माइकल ने क्राइम रिपोर्टिंग और इस घटने के उपर The biker who Shot Me शीर्षक से एक किताब लिखी है। मैं इसे हर पत्रकार को पढ़ने की सलाह दूँगा। माइकल ने अपनी पुस्तक मे कहा है की क्राइम रिपोर्टिंग वार रिपोर्टिंग से भी कठिन है क्योंकि ये कभी ख़तम नही होती। माइकल सहित सारे क्राइम रिपोर्टर्स के ज़ज़्बे को सलाम।
Michel Auger के बारे में और जानने के लिए ये लिंक देखें-- http://www.cpj.org/attacks00/americas00/Canada.html

Thursday 20 March, 2008

सलाम जिंदगी

कितने लोंग है इस दुनिया में जो अपने कंफर्ट ज़ोन से निकल कर समाज और दुनिया के लिए कुछ करना चाहते हैं। हम सब सोचते तो है पर असल मे कर गुज़रने वाले बेहद कम होते हैं। रेचल कोरी एक ऐसा ही नाम है, २३ वर्षीय इस अमेरिकन लड़की ने जो किया वो एक मिसाल है। बचपन से ही रेचल को मानवीय संवेदनाओं की गहरी समझ थी। दस साल की उमर मे इस नवजवान के शब्द उसकी जीवटता और समझ को दर्शाने के लिए काफ़ी है । स्कूल के कार्यक्रम में रेचल ने ये शब्द कहे थे, " We have got to understand that they (third world countries) dream our dreams and we dream theirs.We have got to understand that we are them and they are we."विश्व शांति के लिए कुछ कर गुज़रने की चाह रेचल को हिंसाग्रस्त इज़राईल और फ़िलिस्तीन बॉर्डर तक ले आई। इज़राइल के फ़िलिस्तीन के कुछ हिस्सों पर 'अनैतिक' क़ब्ज़े के खिलाफ रेचल ने आवाज़ उठाई। इस आवाज़ को बुलंद रखनें की कोशिश में १६ मार्च, २००३ को रेचल की मृत्य हो गयी । गाज़ा मे फैले आतंक के लिए कौन ज़िम्मेदार है, ये आज भी बहस का मुद्दा है। कई अमेरिकन संस्थाओं ने रेचल के फ़िलिस्तीन के लिए संघर्ष करने के फ़ैसले को ग़लत ठहराया। पर सवाल ये नही है की इस नवजवान ने किसके लिए संघर्ष किया, ज़रूरत है तो उसके जज़्बे को सलाम करने की। रेचल के बारे मैं खुद ज़्यादा ना लिख कर उसके कहे गये कुछ शब्दो को चिपका रहा हूँ, आशा है ये शब्द हर एक के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनेगें. रेचल ने ये शब्द गाज़ा में बिताए गये दिनों के दौरान कहे थे. "I should at least mention that I am also discovering a degree of strength and of basic ability for humans to remain human in the direst of circumstances - which I also haven’t seen before. I think the word is dignity. I wish you (Rachel's mother) could meet these people. Maybe, hopefully, someday you will." ---

रेचल के बारे मे और जानने के लिए ये लिंक देखें.
http://www.guardian.co.uk/world/2003/mar/18/israel1

Monday 17 March, 2008

अतुल्य भारत


स्कारलेट मर्डर केस की रिपोर्टिंग ब्रिटिश मीडिया ने जबरदस्त तरीके से की, पिछले दो हफ्तों में लगभग हर बड़े अख़बार के पहले पेज पर रहा है ये केस। सनसनी फैलाने के लिए मशहूर ब्रिटिश टॅब्लाइड्स ने इस खबर को जम कर उछाला। कुछ ने गोआ सरकार को दोषी बताया तो कुछ ने स्कारलेट के अभिभावकों को। क्या इस केस का असर भारत के इनक्रेडिबल इंडिया कैंपेन पर पड़ेगा? पिछले कुछ सालों में भारत मे आने वाले विदेशी सैलानियों की संख्या मे काफ़ी इज़ाफा हुआ है। कुछ तो है गोआ मे जो सैलानियों को लगातार अपनी ओर आकर्षित करता है। अकेले 2007 के आकड़ों को देखे तो कुल 2.2 मिलियन सैलानियों नें गोआ भ्रमण किया। 1970 के दशक मे गोआ हिप्पी कल्चर के केंद्र के रूप मे उभरा, समय के साथ इस कल्चर को अपनाने वाले तो कम हुए पर गोआ की पहचान जस की तस रह गयी। आज भी विदेशी सैलानी इसी चाह मे गोआ चले आते है। अब सवाल ये उठता है की सैलानियों को गोआ और देश के अन्य कोनों मे सुरक्षा कैसे प्रदान की जाए।अगर जवाब जल्दी नही खोजा गया तो शायद इंडिया इनक्रेडिबल नही रह जाएगा और छोकरे अपना काम करते रहेंगें। विदेशी मीडिया की माने तो भारत सुरक्षित नही है। गोआ मे हुई एक घटना को पैमाना बनाकर पूरे भारत को नाप दिया गया। कार्यालय मे जब एक सहयोगी ब्रिटिश पत्रकार ने भी चिंता जताई तो हमनें कहा विश्व के हर कोने मे ऐसी घटना होती रहती है। हालाँकि इस तर्क को सफ़ाई के रूप में नही लिया जा सकता है। यक़ीनन स्कारलेट की जान जाने की ज़िम्मेदार गोआ सरकार और पोलीस है। आशा यही है की पोलीस और सरकारें कुछ सख़्त कदम उठाएँगी। कुछ बदमिज़ाज़ भारतीयों के कारण पूरे देश को शर्मसार नही होना पड़ेगा।

Sunday 16 March, 2008

ग़रीबी पैसों की नही दिल की है।

एड्स का नाम आते ही एक सिहरन सी पैदा होती है। हम सब बस खुश हो लेते हैं की उपर वाले ने हमें बचाए रखा है, और कुछ दुखी भी हो जाते है उनके लिए जो इस भयानक बीमारी के शिकार हैं। बस हो गयी हमारी चिंता ख़त्म। कुछ ऐसी ही सोच थी मेरी, पर जिस दिन इस बीमारी से ग्रसित छोटे छोटे बच्चों से सामना हुआ तो अपने उपर बहुत क्रोध आया। कुछ समय पहले काम के सिलसिले में मैंगलूर स्थित एड्स से पीड़ित बच्चों के अनाथालय जाना हुआ। काम था एक ऐसी डॉक्युमेंटरी बनाने का जिसके ज़रिए कुछ फंड उगाहा जा सके। काम के दौरान ही एक कर्मचारी की बात ने मुझे झकझोर कर रख दिया। मैने कहा हम कर ही क्या सकते है इन बच्चों के लिए, ज़्यादा से ज़्यादा कुछ पैसे दे सकते है। उसने जो उत्तर दिया वो मैं वैसा ही लिख रहा हूँ, " सर ग़रीबी पैसों की नही ग़रीबी दिल की है, पैसे देने वाले तो बहुत है पर इन बच्चों के साथ समय गुजारने वाले बेहद कम। ये बच्चे सिर्फ़ कुछ समय चाहते है, कोई इनके साथ आए और खेले।" हम अपनी दुनिया मे मस्त जीते है, इंटेलेक्चुयल टाइप जमाने भर की चिंता लिए। ज़्यादा हुआ तो कुछ चर्चा कर ली और चिंता जाहिर कर दी। जिस अनाथालय की मैं बात कर रहा हू उसका नाम 'संवेदना' है। संवेदना से अब मेरा गहरा नाता है, हर हफ्ते वाहा जाने की कोशिश करता हू। ना तो मैं उनकी भाषा समझ पता हू ना वो मेरी, पर एक रिश्ता है। अगर हम अपनी व्यस्त ज़िंदगियों से कुछ समय निकाले तो कितनी खुशियाँ बाँट सकते हैं। संवेदना के बारे में आगे भी लिखता रहूँगा।

हॉकी और टेलीविज़न


इंडियन हॉकी टीम बीजिंग ओलंपिक से बाहर हो चुकी है और मीडिया भी अब तक काफ़ी हाय तौबा मचा चुका है। हर किसी को शिकायत है इंडियन हॉकी संघ अध्यक्ष के.पी.एस गिल से, मीडिया की माने तो गिल साहब को हटाने से हॉकी को फिर से पुनर्जीवित किया जा सकता हैं। मीडिया की इस कयावाद से हमेशा गुमनामी में खोए रहने वाले हॉकी दिग्गजों को मौका मिला जनता के सामने आने का, और उनमे से काफ़ी ने गिल साहब को खूब धोया। अभी मामला गरम है इसलिए मीडिया की हाँव हाँव चालू है। हालाँकि किसी भी चैनल ने चिली मे होने वाले महत्वपूर्ण मैच से पहले कोई 'खास प्रोग्राम' नही दिखाया, और ना तो किसी चैनल के खेल संवाददाता (मैं कहूँगा क्रिकेट संवाददाता) चिली मे मौजूद थे। यकीन मानिए दो हफ्तों बाद ना तो हॉकी और ना ही हॉकी दिग्गज मीडिया मे नज़र आएँगे, होगा तो सिर्फ़ इंडियन प्रिमियर लीग का शोर। तो, हॉकी की इस दुर्दशा का दोषी कौन है? हॉकी संघ तो सबसे उपर है ही पर हम आप और मीडिया भी कम दोषी नही है। 2003 में जब भारतीय टीम ने एशिया कप और चॅंपियन्स ट्राफी शानदार तरीके से जीती तो लगा हॉकी रास्ते पर है। इतना ही नही हेलसिंकी मे भी भारत ने अच्छे खेल का प्रदर्शन करते हुएदूसरा स्थान प्राप्त किया। दीपक ठाकुर, गगन अजीत सिंह, जुगराज सिंह, अर्जुन हल्लापा, और वीरेन रास्क़ुइन्हा जैसे कितने ही खिलाड़ियों को इन बड़ी जीतों के बाद बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। क्यों? मीडिया ने पूछा नही तो किसी ने बताया नही, मामला ख़तम। हाल ही मे एक खबर पढ़ी की भारतीय हॉकी कैप्टन प्रबोध तिर्की को दिल्ली के एक होटेल में रात छत पर गुज़ारनी पड़ी, कारण उनके लिए रूम बुक नही था। बैंगलूर मे रिपोर्टिंग के दौरान उन्हे इंटरव्यू करने का मौका मिला, मैने इतना सरल इंसान कभी नही देखा, इसलिए कोई हैरानी नही हुई जब उन्होनें किसी से इस घटना की शिकायत नही की। हम क्रिकेट टीम की विश्व कप से असमय विदाई तो आसानी से भूल जाते हैं पर हॉकी टीम को एक हार के बाद खारिज करने लगते हैं। आख़िर ऐसा क्या है जो क्रिकेट हर खेल से उपर है, कारण जानने के लिए बात करते है अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों की। भारतीय क्रिकेट टीम ने विश्व कप जीता और लगभग उसी समय भारत में कलर टेलीविज़न का उदय हुआ। भारतीय हॉकी टीम के इतिहास के सबसे बुरे दिनों की पटकथा भी इसी दौर मे शुरू हुई। जहाँ हॉकी अपने उतार पर थी तो क्रिकेट का नशा परवान चढ़ता गया। कारण साफ है, टेलीविज़न की चमक दमक का फ़ायदा उठाने मे हॉकी पीछे रह गयी। हमारा राष्टीय खेल पीछे होता गया और क्रिकेट आगे। बाज़ार उसे ही चुनता है जो बिकता है, सो स्पॉन्सर्स भी क्रिकेट के साथ हो लिए। वापस 2008 में, इस हार से पहले हमने कभी हॉकी के लिए हाय तौबा नही मचाई, कभी कोई रिपोर्ट नही आई की हमारे खिलाड़ी किस तरह से तैयारी करते हैं। क्या हमें हक है हॉकी टीम के इस प्रदर्शन पर कुछ भी कहने का? शायद ही कोई आम आदमी या हमरे खेल पत्रकार मौजूदा हॉकी टीम के पूरे सदस्यों के नाम गिना पाएँगें। अगर हमनें 2003 में आवाज़ उठाई होती तो आज हमारी टीम ओलंपिक पदक की दौड़ मे शामिल होती। ये बात मैं पूरे विश्वास से कह सकता हू, नीचे दिए गये लिंक को देखें तो शायद आप भी कह पाएँगे। http://www.bharatiyahockey.org/yuvasena/

Tuesday 11 March, 2008

बी पी ओ और शेट्टी साहब

आज सुबह की सैर के बाद शेट्टी साहब के मिज़ाज़ कुछ बदले हुए नज़र आ रहे थे। हमने गुस्ताख़ी माफ़ कहते हुए पूछ ही लिया, क्या हुआ कुछ मूड खराब है क्या? इतना सुनते ही शेट्टी साहब बरस पड़े, बोले आमा यार आजकल की पीढ़ी को हो क्या गया है, सब सब के सब नलायक है। हमने कहा बात क्या हुई ये तो बताओ। पता चला पार्क मे आज कुछ लड़कों से बहस हो गयी थी, शेट्टी साहब गुस्से से बोले, पता है पत्रकार महोदय ये नौजवान समझते है की बिना बीपीओ और टेक कंपनियों के मंगलोर पिछड़ा हुआ था। बिना मैकडोनल्ड और पिज़्ज़ा हट के भी कोई शहर होता है क्या? कुछ नौजवान आज पार्क मे इसी मुद्दे पर बात कर रहे थे और अपने शेट्टी मियाँ आदत के अनुसार कूद गये बीच मे बहस करने, और जब नयी उमर के लड़कों ने पटखनी दे दी तो तुनक कर घर वापस आ गये। बेचारी बीवी को उनके कोप का शिकार बनना पड़ता पर आज निशाने पर हम थे। बोले आप मीडिया वाले तो कुछ मत बोलिए, कभी रायचुर या गुलबर्गा की खबरें छापते हो? किसानों का क्या हाल है, इससे तुम्हे क्या मतलब बस मंगलोर और बंगलोर का नगाड़ा पिटो। मैने कहा, सर ऐसा नही है आज का मीडिया बड़ा जागरूक है, गुस्से में लाल होकर बोले क्या खाक जागरूक हैं तुम्हारा मीडिया, नाग नागिन की कहानी दिखाते रहते हो। हमने सोचा की वो मीडिया की और भद्द पिटें बात घुमा दी जाए। हमने कहा क्या ग़लत है, अगर नौजवानों को रोज़गार मिल रहा है, हमे बी पी ओ को और प्रोत्साहन देना चाहिए। जल्द ही पता चल गया की फिर से निशाना ग़लत लगा है, अबकी बार गुस्से से सतरंगी होकर बोले, तुम्हे क्या पता की वो सारे पुराने सिनेमा हाल और सागर कैफ़े की कीमत जिनकी जगह मालों और ब पी ओ ने ले ली है, कभी वहाँ कन्नड़ साहित्यकारों और बुद्धजिवियों की मंडली लगा करती थी। पुरानें दिनों की याद ने शायद शेट्टी साहब को कुछ ठंडा कर दिया था, एक लंबी सांस ली और बोले हम कर भी क्या सकते है, बस तमाशबीन बने रहेंगें। मैने सोचा मामला गरम हो रहा है तो तो फिर कुछ नयी बात उठाई जाए। यूँही पूछा क्या खबर है आज अख़बार में? आज दिन ही खराब था, फिर से गुस्से में बोले, वही राज ठाकरे की पार्टी का तमाशा, इसको भगाओ उसको भागाओ, अरे कोई बी पी ओ को भागने का तरीका तो बताए।इससे पहले की वो मेरी तरफ निशाना साधते मैने कहा कुछ काम है आप से शाम को मिलूँगा।

Sunday 9 March, 2008

ग्रेट अमेरिकन ड्रीम

द टेलीग्राफ में छपी एक खबर ने ग्रेट अमेरिकन ड्रीम के बारे में सोचने पर मज़बूर कर दिया है. खबर के अनुसार अमेरिका में सैलाब के बाद पुनर्निर्माण कार्य में लगे भारतीय मज़दूरों की दशा अत्यंत दयनीय है. अमेरिका में एशिया के मज़दूरों की मानवाधिकारों के लिए लड़ाई जारी है. हमारे टीवी वालों ने अमेरिका के चुनावों पर तो खूब गला साफ किया, पर इस खबर को समय देना शायद घाटे का सौदा रहा होगा. पिछले कुछ महीनों में भारतीय प्रोफेशनल्स और छात्रों की हत्या की खबरें लगातार आती रहीं हैं. क्या ग्रेट अमेरिकन ड्रीम धुंधला हो रहा है खबर का पता--http://www.telegraphindia.com/1080308/jsp/foreign/story_8994936.jsp

Friday 7 March, 2008

शुभारंभ

कई दिन सोचने के बाद आज ब्लॉग शुभारंभ करने की ठानी, रवि रतलामी जी के ब्लॉग से किसी तरह हिन्दी टाइपिंग के औज़ार प्राप्त किए और सोचा एक पोस्ट लिखी जाए. चूँकि आज ब्लॉग शुरू कर रहा हू, तो एक शुरुआत के बारे ही मे बताता हू. बात है सन 2005 की, शुरुआत मेरे पत्रकार बनने की. कॉलेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद एक बड़े अँगरेज़ी अख़बार मे पूरे जोशो खरोश के साथ पहुचा काम करने. आखों मे सपना था कुछ नया करने का और दुनिया बदल देने का, गौर फरमाइए ये सपना हर पत्रकारिता के छात्र का होता है. पहले ही दिन मुझे इस बात का आभास हो गया की साहब ये तो कुछ अजब ही मायाजाल है. काम दिया गया एक खबर को पठनीय बनाने का, खूब दिल लगा कर किया और अंत मे खूब खुश था की कॉलेज मे सीखी सारी तकनीकी बातों का आज प्रयोग किया है. फिर एडिटर महोदया ने अपने केबिन मे बुलवाया और ऐसा झाड़ा की सारा जोश जाता रहा, कहा तुम लोंग क्या सोचते हो की कॉलेज मे पढ़ लेने से पत्रकार बन जाओगे, कई साल लग जाते है सीखने में. अगले दिन वही खबर अख़बार मे देखी तो लगभग वैसे ही छपी थी जैसी हमने बनाई थी. अब हम सोंच मे थे की क्या हमारी ग़लती है की हमने कॉलेज मे सीखा. आज से दस साल पहले पत्रकारिता पढ़ाने वाले कॉलेज कम थे पर जब आज है तो हमारे आदरणीय एडिटर्स को अपनी धारणा बदलनी होगी. ये सही है की अनुभव के साथ ही रंग चढ़ता है , पर अगर पत्रकारिता के छात्रों को आदर से देखा जाए तो निशित ही परिणाम बेहतर होंगे और ज़्यादा से ज़्यादा युवा इस पेशे को अपनाएँगे.