name='verify-cj'/> चलते चलते: बारिश और सरगम

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Wednesday, 18 June 2008

बारिश और सरगम


मानसून की तेज़ बौछारों ने मेर गहरी तंद्रा तोड़ी और मैं फिर से आज लिखने के इरादे से बैठा हूँ. क्या लिखूं ये नही पता, बस अनमने से मुसाफिर की तरह चलते ही जा रहा हूँ. बाहर बारिश की फुहारें अपने चरम पर है, जैसे उसे कोई जल्दी है, कोई उसकी राह देख रहा है. इस सुंदरी के ठीक उल्टा मैं एकदम शिथिल हूँ.बारिश सबको सुंदर लगती है पर मुझे क्यूँ आज कोफ़्त हो रही है. मैं क्यूँ इसकी तुलना किसी की असीम सुंदरता से नही कर पा रहा हूँ. बाहर रात जवान हो रही है और मैं ढल रहा हूँ. उधेड़बुन जारी है कि खाना बनाउ या ऑर्डर करूँ. खैर खाना बाद में देखेंगे अभी बस एक छोटी ड्रिंक से काम चलेगा.सोच जारी है, क्यू मुझे इन फुहारों मे सरगम नही सुनाई दे रही है है. शायद इसका खेल भी कुछ लाल रंग जैसा ही है, किसी दुकान पर लाल शर्ट मन को कितनी सुहाती है पर जब बाहर कि रोशनी मे देखो तो वही रंग भड़कीला लगने लगता है. बारिश का भी यही खेल है, अच्छा साथ और अच्छा खाना इन बूँदों को को एक एहसास बना देता है नही तो बस सब पानी ही है. क्या करू मंगलोर मे आजकल बारिश भी खूब हो रही है...

2 comments:

Batangad said...

कहां गायब हो गए थे तुम। चलो बारिश आई तो तुम नजर तो आए।

Udan Tashtari said...

मन अनमना है-दो छोटे लगा लो. सब सही हो जायेगा. :)