आज वीकेंड के कारण ज़्यादा काम नही था तो घर जल्दी आ गया. एक दिन और ख़त्म, हर दिन की तरह कंप्यूटर आन किया और जब तक स्क्रीन जिंदा हो मैंफ्रिज से एक ड्रिंक निकाल लाया. इसे पहले की लिखना शुरू करूँ रोज़ की तरह विनैप प्लेलिस्ट पर आज हिन्दी सुनने का मूड हो रहा है. स्पीकर आन करते ही किशोर दा की आवाज़ गूँजती है, "वो शाम कुछ अजीब थी. " शाम बनाने के लिए एक बेहतरीन शुरुआत. अजीब सी कशिश है इन गीतों मे, ज़्यादातर लोंगो को तो ये पता होगा की किशोर दा ने गया है, शायद ये भी पता हो कि हेमंत कुमार का म्यूज़िक है, क्या ये पता होगा कि गुलज़ार साहब ने ये गीत लिखा हैं? शायद पता हो क्यूंकी बात गुलज़ार साहब कि हो रही है. अगला गीत है " गीत गाता हूँ मैं. "अब मैं अगर कहूँ मुझे नही पता ये गीत किसने लिखा है तो सही होगा. किसी गाने कि सफलता में सबसे ज़्यादा श्रेय गायक को मिलता है फिर गीतकार को शायद....... जाने कितने गाने है जो ज़बान पर रहतें है पर किसकी कलम से निकले हैं ये पता नही रहता. हमने गीतकारों को श्रेय देना बंद ही कर दिया है.जब तक एक और ड्रिंक लूँ तीसरा गाना "ये जीवन है." सुनाई दे रहा है. एक समय था जब हम दादाजी के रेडियो पर गीतमाला सुनते थे "फ़ौजी भाइयों कि पसंद पे ." हर गीत से पहले गीतकार का नाम आता था, गुलशन बावरा, आनन्द बक्शी, शैलेंद्र, फिराक हमे ज़बानी याद रहते थे. आज के एफ.एम रेडियो को शायद गीतकारों से कोई सरोकार नही है."कहीं दूर जब दिन ढल जाए." तो सबने सुना होगा पर इस गीत को लिखने वाले योगेश हैं ये कम ही लोंग जानते हैं. नीरज, गुलशन बावरा का क्या हुआ पता नहीं. गुलज़ार और जावेद अख़्तर को हम सब जानते हैं क्यूंकी वो गीतकार के साथ फिल्म निर्देशन और पटकथा लेखकभी हैं. बाहर बारिश ज़ोर कि है और सब्ज़ी भी पक चुकी है. मुझे इज़ाज़त दीजिए कि अपने पसंदीदा संगीतकार आर.डी बरमन के संगीत का आनंद लूँ. फिर कभी विस्तार से लिखूंगा.
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1 comment:
विकास वीकएंड की बातें तो अच्छी लगी पर एक बात पिछले तीन चार लोगों को भी कह चुका हूं कि बेहतर होगा कि एक पैरा में सब चीजें ना समेटें। पढ़ने में दिक्कत होती है। वर्ना अलग-अलग पैरा में लिखा होता तो और दिलचस्प ही लगता ।
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