name='verify-cj'/> चलते चलते: June 2008

स्वागत

चलते चलते कुछ सुनिए और कुछ सुना जाइए।

Wednesday, 25 June 2008

व्यथित मन

संवेदना एड्स से पीड़ित बच्चों का अनाथालय है और इस संस्था से मैं पिछले एक वर्ष से जुड़ा हुआ हूँ. कल लगभग दो महीने के बाद वहाँ जाना हुआ जबकि मेरे घर से अनाथालय की दूरी सिर्फ़ तीन किलोमीटर है. किसे दोष दूं अपनी व्यस्तता को या नियति को.मन बहुत व्यथित था और कल इसी कारण कुछ लिखा भी नही. कल जाते ही मुझे जानकारी मिली कि पिछले दो महीनों मे चार बच्चे दुनिया छोड़ कर चले गये. इसनमे से दो मेरे प्रिय थे जिनके लिए मैं हमेशा क़ी तरह कुकीज़ ले कर गया था. खबर सुनकर मैं स्तब्ध सा वहीं खड़ा रह गया, क्या करूँ पल भर के लिए आँखों के सामने अंधेरा छा गया. उन बच्चों के चेहरे मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहे थे, मैं उन्हे सुन पा रहा था पर यथार्थ में नही. इतना रोष मुझे अपने उपर कभी नही आया. मैं उनके जाने को तो नही टाल सकता था पर उन्हे कुछ पल खुशियों के ज़रूर दे सकता था. दोनो को ही मेरे साथ खेलना पसंद था. मुझे सहसा शशि क़ी बात याद आ गयी. अनाथालय क़ी देखरेख करने वाली इस महिला ने मुझसे एकबार कहा था, "ग़रीबी पैसों क़ी नही दिल क़ी है." उसका आशय था कि पैसे देने वाले तो बहुत हैं पर इन मासूमों के साथ समय बिताने वाले बेहद कम. आज मैं भी अपने आप को दूसरी श्रेणी मे पा रहा हूँ.इस झटके से उबर पता कि पता चला कि अनाथालय जिस भवन मे है उसे जल्द ही खाली करना होगा. कारण? इस भवन के आसपास रहने वाले अभिजात्य वर्ग को लगता है कि इन बच्चों के पड़ोस मे रहने से उन्हे भी एड्स का ख़तरा है. ये सारे पढ़े लिखे लोंग अनपढ़ों जैसी बातें क्यूँ करते हैं पता नही. नया घर इन बच्चों के लिए साल भर मे चौथा होगा. कुछ पत्रकार मित्रों क़ी मदद से इन बच्चों को सरकारी स्कूल मे दाखिला मिला था अब फिर से से आशा है क़ी कुछ होगा और इन बच्चों का घर नही छिनेगा. उन दो मासूमों के चहरे अभी भी मेरे मन मे छाए हुएँ है.

Monday, 23 June 2008

आफ़िस से घर तक

एक दिन और ख़त्म और आज फिर घर जल्दी आ गया. एक मित्र ने कर्नाटिक संगीत की सी.डी भेंट की थी, इसे समझने की कोशिश जारी है. समझ मे कुछ खास नही आ रहा है पर एक कशिश है. किसी ने सही कहा है संगीत भाषाओं की सीमा से परे है. संगीत जब दक्षिण को है तो आज खाने मे भी सांभर ही सही रहेगा. कुछ लिख लूँ फिर सोचूँगा कैसे बनाना है. जैसा मैने कल लिखा था पोस्ट मे कि किसी का इंतज़ार है, इंतज़ार तो ख़त्म हुआ पर पूरी दुनिया ही उलट पुलट हो गयी है. मेरी ये मित्र जो एक बड़े अख़बार मे रिपोर्टर है ने सारा तानाबाना ही उलट दिया है. अब रिपोर्टर हैं तो ज़बान तेज़ होगी ही. क्या करूँ , कल तक मैं सोचता था कि मेरा घर काफ़ी दर्शिनिय है, समंदर के किनारे है. आज पता चला कि घर कैसे रखा जाता है. यकीन मानिए, मैं तो काफ़ी खुश रहता था कि मेरा घर अपने सभी पुरुष मित्रों के घर से स्वक्ष् रहता है. आज भ्रम टूट गया. घर लौटा तो लगा कि किसी दूसरी दुनिया मे हूँ. क्या सिर्फ़ महिला और पुरुष का अंतर है या सोच का? जिसे मैं साफ समझता था मेरी मित्र ने उसे कबाड़खाना करार दिया. क्या ये मान लेना सही है कि महिलाएँ तो पुरषों कि बराबरी हर जगह कर रहीं है पर पुरुष शायद ऐसा नही कर पा रहें है. आराम से लिख रहा हूँ क्यूंकी इन्हे हिन्दी नही आती नही तो दो घंटे कि बहस तो सामने थी समझिए. खैर मैने टाइम्स और ए.पी दोनो ही जगह महिला रिपोर्टर्स को काम करते देखा है और मुझे कोई तकलीफ़ नही है कहने मे कि वो बेहतरीन काम करतीं हैं.बस अब हमे ही कुछ आगे बढ़ना है. तो मैं नोट बनता हूँ कि क्या कैसे रखना है आपसे कल फिर बात होगी.

Sunday, 22 June 2008

ब्लाग क्यूँ लिखते हैं?

ब्लाग क्यूँ लिखते हैं? कभी लगता है कि वक़्त क़ी बरबादी है, क्या फ़र्क पड़ता है अगर ना लिखूं तो. शायद किसी और को नही पर मुझे फ़र्क पड़ता है, एक ज़रिया है जहाँ मैं जो चाहूं लिखूं, जो मन मे है वो लिखूं. और अगर कोई पढ़ता है जिसकी सोच मुझसे मिलती है और भी अच्छा. पर मुझे ब्लॉग पर समाचार अच्छे नहीं लगते. कई ब्लॉग्स है जो देश और दुनियाँ के बारे मे लिखते हैं. कई अच्छी जानकारी भी देते हैं. पर कम ही ब्लॉग हैं जो जीवन को नज़दीक से देखतें है. इंडियन डाय्ररी उनमे से एक है. जब मैने ब्लॉग लिखना शुरू किया तो मकसद सिर्फ़ इतना था कि अपनी भाषा के नज़दीक रहूं. अँग्रेज़ी से जीविका चलती है और ब्लॉग मिट्टी से दूरी को कुछ कम करता है. रोज़ न्यूज़रूम के शोर के बाद जब घर के कंप्यूटर को खोलता हूँ तो एक ऐसी दुनिया से रप्ता होता है जहाँ आपको छूट है कि जो चाहे वो सुनो जो ना अच्छा लगे मत पढ़ो.कुछ अपनी कहो कुछ दूसरों क़ी सुनो. सुबह जब सोया था तो उजाला था और अभी शाम ढल चुकी है. इलाहाबाद के बेपरवाह दिनों मे शाम समोसे और चाय के साथ होती थी और साथ में पूरी यूनिवर्सिटी का समाचार अलग से.धीरे से चाय क़ी जगह काफ़ी और समोसे क़ी जगह पिज़्ज़ा ने ले ली और बतकही कहीं गायब ही हो गयी. ब्लॉग के बाद शायद बतकही फिर से वापस है. रोज़ क़ी तरह फिर से सोच ज़ारी है कि खाना बनाया जाय या ऑर्डर करूँ. खैर वो बाद मे देखूँगा, आज कोई घर आने वाला है. इंतेज़ार का अपना ही एक मज़ा है.इस भागमभाग में संडे किसी त्योहार से कम नहीं लगता और अगर पार्टी कि मेहमान नवाज़ी आपके सर हो तो मज़ा कुछ ज़्यादा ही होता है.

Saturday, 21 June 2008

शाम और पंचम

आज वीकेंड के कारण ज़्यादा काम नही था तो घर जल्दी आ गया. एक दिन और ख़त्म, हर दिन की तरह कंप्यूटर आन किया और जब तक स्क्रीन जिंदा हो मैंफ्रिज से एक ड्रिंक निकाल लाया. इसे पहले की लिखना शुरू करूँ रोज़ की तरह विनैप प्लेलिस्ट पर आज हिन्दी सुनने का मूड हो रहा है. स्पीकर आन करते ही किशोर दा की आवाज़ गूँजती है, "वो शाम कुछ अजीब थी. " शाम बनाने के लिए एक बेहतरीन शुरुआत. अजीब सी कशिश है इन गीतों मे, ज़्यादातर लोंगो को तो ये पता होगा की किशोर दा ने गया है, शायद ये भी पता हो कि हेमंत कुमार का म्यूज़िक है, क्या ये पता होगा कि गुलज़ार साहब ने ये गीत लिखा हैं? शायद पता हो क्यूंकी बात गुलज़ार साहब कि हो रही है. अगला गीत है " गीत गाता हूँ मैं. "अब मैं अगर कहूँ मुझे नही पता ये गीत किसने लिखा है तो सही होगा. किसी गाने कि सफलता में सबसे ज़्यादा श्रेय गायक को मिलता है फिर गीतकार को शायद....... जाने कितने गाने है जो ज़बान पर रहतें है पर किसकी कलम से निकले हैं ये पता नही रहता. हमने गीतकारों को श्रेय देना बंद ही कर दिया है.जब तक एक और ड्रिंक लूँ तीसरा गाना "ये जीवन है." सुनाई दे रहा है. एक समय था जब हम दादाजी के रेडियो पर गीतमाला सुनते थे "फ़ौजी भाइयों कि पसंद पे ." हर गीत से पहले गीतकार का नाम आता था, गुलशन बावरा, आनन्द बक्शी, शैलेंद्र, फिराक हमे ज़बानी याद रहते थे. आज के एफ.एम रेडियो को शायद गीतकारों से कोई सरोकार नही है."कहीं दूर जब दिन ढल जाए." तो सबने सुना होगा पर इस गीत को लिखने वाले योगेश हैं ये कम ही लोंग जानते हैं. नीरज, गुलशन बावरा का क्या हुआ पता नहीं. गुलज़ार और जावेद अख़्तर को हम सब जानते हैं क्यूंकी वो गीतकार के साथ फिल्म निर्देशन और पटकथा लेखकभी हैं. बाहर बारिश ज़ोर कि है और सब्ज़ी भी पक चुकी है. मुझे इज़ाज़त दीजिए कि अपने पसंदीदा संगीतकार आर.डी बरमन के संगीत का आनंद लूँ.फिर कभी विस्तार से लिखूंगा.

Music...

आज वीकेंड के कारण ज़्यादा काम नही था तो घर जल्दी आ गया. एक दिन और ख़त्म, हर दिन की तरह कंप्यूटर आन किया और जब तक स्क्रीन जिंदा हो मैंफ्रिज से एक ड्रिंक निकाल लाया. इसे पहले की लिखना शुरू करूँ रोज़ की तरह विनैप प्लेलिस्ट पर आज हिन्दी सुनने का मूड हो रहा है. स्पीकर आन करते ही किशोर दा की आवाज़ गूँजती है, "वो शाम कुछ अजीब थी. " शाम बनाने के लिए एक बेहतरीन शुरुआत. अजीब सी कशिश है इन गीतों मे, ज़्यादातर लोंगो को तो ये पता होगा की किशोर दा ने गया है, शायद ये भी पता हो कि हेमंत कुमार का म्यूज़िक है, क्या ये पता होगा कि गुलज़ार साहब ने ये गीत लिखा हैं? शायद पता हो क्यूंकी बात गुलज़ार साहब कि हो रही है. अगला गीत है " गीत गाता हूँ मैं. "अब मैं अगर कहूँ मुझे नही पता ये गीत किसने लिखा है तो सही होगा. किसी गाने कि सफलता में सबसे ज़्यादा श्रेय गायक को मिलता है फिर गीतकार को शायद....... जाने कितने गाने है जो ज़बान पर रहतें है पर किसकी कलम से निकले हैं ये पता नही रहता. हमने गीतकारों को श्रेय देना बंद ही कर दिया है.जब तक एक और ड्रिंक लूँ तीसरा गाना "ये जीवन है." सुनाई दे रहा है. एक समय था जब हम दादाजी के रेडियो पर गीतमाला सुनते थे "फ़ौजी भाइयों कि पसंद पे ." हर गीत से पहले गीतकार का नाम आता था, गुलशन बावरा, आनन्द बक्शी, शैलेंद्र, फिराक हमे ज़बानी याद रहते थे. आज के एफ.एम रेडियो को शायद गीतकारों से कोई सरोकार नही है."कहीं दूर जब दिन ढल जाए." तो सबने सुना होगा पर इस गीत को लिखने वाले योगेश हैं ये कम ही लोंग जानते हैं. नीरज, गुलशन बावरा का क्या हुआ पता नहीं. गुलज़ार और जावेद अख़्तर को हम सब जानते हैं क्यूंकी वो गीतकार के साथ फिल्म निर्देशन और पटकथा लेखकभी हैं. बाहर बारिश ज़ोर कि है और सब्ज़ी भी पक चुकी है. मुझे इज़ाज़त दीजिए कि अपने पसंदीदा संगीतकार आर.डी बरमन के संगीत का आनंद लूँ. फिर कभी विस्तार से लिखूंगा.

Wednesday, 18 June 2008

बारिश और सरगम


मानसून की तेज़ बौछारों ने मेर गहरी तंद्रा तोड़ी और मैं फिर से आज लिखने के इरादे से बैठा हूँ. क्या लिखूं ये नही पता, बस अनमने से मुसाफिर की तरह चलते ही जा रहा हूँ. बाहर बारिश की फुहारें अपने चरम पर है, जैसे उसे कोई जल्दी है, कोई उसकी राह देख रहा है. इस सुंदरी के ठीक उल्टा मैं एकदम शिथिल हूँ.बारिश सबको सुंदर लगती है पर मुझे क्यूँ आज कोफ़्त हो रही है. मैं क्यूँ इसकी तुलना किसी की असीम सुंदरता से नही कर पा रहा हूँ. बाहर रात जवान हो रही है और मैं ढल रहा हूँ. उधेड़बुन जारी है कि खाना बनाउ या ऑर्डर करूँ. खैर खाना बाद में देखेंगे अभी बस एक छोटी ड्रिंक से काम चलेगा.सोच जारी है, क्यू मुझे इन फुहारों मे सरगम नही सुनाई दे रही है है. शायद इसका खेल भी कुछ लाल रंग जैसा ही है, किसी दुकान पर लाल शर्ट मन को कितनी सुहाती है पर जब बाहर कि रोशनी मे देखो तो वही रंग भड़कीला लगने लगता है. बारिश का भी यही खेल है, अच्छा साथ और अच्छा खाना इन बूँदों को को एक एहसास बना देता है नही तो बस सब पानी ही है. क्या करू मंगलोर मे आजकल बारिश भी खूब हो रही है...