Thursday, 27 March 2008
Wednesday, 26 March 2008
ब्रिटिश मीडिया ने कराई प्रिन्स हैरी को आफ्गानिस्तान कि यात्रा
Monday, 24 March 2008
पानी का पत्रकार- एक प्रेरणा
श्री की राह इतनी आसान नही थी, कुछ किसान जो पढ़ नही सकते उन तक समाचार कैसे पहुचेया जाए ये एक समस्या थी। श्री ने एक नायाब तरीका निकाला, उन्होने रिपोर्टरों की एक टीम बनाई जो की जो किसानो को चौपाल लगाकर जानकारी देने लगी। ये तरकीब काम कर गयी और अनपढ़ किसानों को भी सार्थक पत्रकारिता का लाभ मिलने लगा। श्री ने कई किताबें भी लिखी हैं।मेरा प्रयास है की श्री के साथ एक इंटरव्यू किया जाय। आशा है वो समय देंगे और ब्लॉग पर उनका साक्षात्कार शीघ्र उपलब्ध होगा। श्री के बारे में और जानने के लिए ये लिंक देखे---
http://www.worldproutassembly.org/archives/2006/02/the_rain_man_of.html
Sunday, 23 March 2008
बोलो जय जवान और भूल जाओ
Saturday, 22 March 2008
होली विद कुरकुरे एंड पेप्सी
एक पत्रकार की कहानी
हम भारतीय मीडिया की आलोचना या तारीफ (गाहे बगाहे) करने में मगन रहते है। मेरी कोशिश है कुछ ऐसी कहानियों को सामने लाने की जो प्रेरणास्त्रोत हैं। इसी कड़ी में आज बात करते है कनेडियन क्राइम रिपोर्टर Michel Auger की। माइकल ने क्राइम रिपोर्टिंग के नये कीर्तिमान स्थापित किए है। ९० के दशक मे कनाडा में क्राइम अपने चरम पर था और इसी समय माइकल ने Canada Le Journal de Montreal अख़बार मे क्राइम रिपोर्टिंग को नये आयाम दिए। ख़ासकर बाइकर गिरोहों का आतंक सबसे ज़्यादा था। माइकल ने लगातार इनके खिलाफ रिपोर्टिंग की और कइयों का पर्दाफाश किया। ज़ाहिर है कई दुश्मन भी बनाए। रोज़ की तरह काम से लौट रहे माइकल को १३ सितंबर, २००० को गोलियों से भून दिया गया। ६ गोलियाँ शरीर मे धसने के बाद भी माइकल ने अपने स्टाफ को रिपोर्ट किया और घटना की जानकारी दी। शायद उन्हे इस खबर की महत्ता का अंदेशा रहा होगा। ऐसी जीवटता वाले इंसान बेहद कम होते है। चार महीने तक अस्पताल मे इलाज कराने के बाद माइकल अपने डेस्क पर वापस थे और जो उन्होने कहा वो मैं यहा चिपका रहा हू। "I realised I had to go back to work, that it wouldn't be a crminal who decided the date of my retirement." इस घटना के बाद माइकल ने अपने परिवार से वादा किया की वो फिर से क्राइम बीट पर वापस नही जाएगें पर एक हफ्ते बाद माइकल वही कर रहे थे जिसके लिए उन्हे जाना जाता है। माइकल ने क्राइम रिपोर्टिंग और इस घटने के उपर The biker who Shot Me शीर्षक से एक किताब लिखी है। मैं इसे हर पत्रकार को पढ़ने की सलाह दूँगा। माइकल ने अपनी पुस्तक मे कहा है की क्राइम रिपोर्टिंग वार रिपोर्टिंग से भी कठिन है क्योंकि ये कभी ख़तम नही होती। माइकल सहित सारे क्राइम रिपोर्टर्स के ज़ज़्बे को सलाम।
Michel Auger के बारे में और जानने के लिए ये लिंक देखें-- http://www.cpj.org/attacks00/americas00/Canada.html
Thursday, 20 March 2008
सलाम जिंदगी
कितने लोंग है इस दुनिया में जो अपने कंफर्ट ज़ोन से निकल कर समाज और दुनिया के लिए कुछ करना चाहते हैं। हम सब सोचते तो है पर असल मे कर गुज़रने वाले बेहद कम होते हैं। रेचल कोरी एक ऐसा ही नाम है, २३ वर्षीय इस अमेरिकन लड़की ने जो किया वो एक मिसाल है। बचपन से ही रेचल को मानवीय संवेदनाओं की गहरी समझ थी। दस साल की उमर मे इस नवजवान के शब्द उसकी जीवटता और समझ को दर्शाने के लिए काफ़ी है । स्कूल के कार्यक्रम में रेचल ने ये शब्द कहे थे, " We have got to understand that they (third world countries) dream our dreams and we dream theirs.We have got to understand that we are them and they are we."विश्व शांति के लिए कुछ कर गुज़रने की चाह रेचल को हिंसाग्रस्त इज़राईल और फ़िलिस्तीन बॉर्डर तक ले आई। इज़राइल के फ़िलिस्तीन के कुछ हिस्सों पर 'अनैतिक' क़ब्ज़े के खिलाफ रेचल ने आवाज़ उठाई। इस आवाज़ को बुलंद रखनें की कोशिश में १६ मार्च, २००३ को रेचल की मृत्य हो गयी । गाज़ा मे फैले आतंक के लिए कौन ज़िम्मेदार है, ये आज भी बहस का मुद्दा है। कई अमेरिकन संस्थाओं ने रेचल के फ़िलिस्तीन के लिए संघर्ष करने के फ़ैसले को ग़लत ठहराया। पर सवाल ये नही है की इस नवजवान ने किसके लिए संघर्ष किया, ज़रूरत है तो उसके जज़्बे को सलाम करने की। रेचल के बारे मैं खुद ज़्यादा ना लिख कर उसके कहे गये कुछ शब्दो को चिपका रहा हूँ, आशा है ये शब्द हर एक के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनेगें. रेचल ने ये शब्द गाज़ा में बिताए गये दिनों के दौरान कहे थे. "I should at least mention that I am also discovering a degree of strength and of basic ability for humans to remain human in the direst of circumstances - which I also haven’t seen before. I think the word is dignity. I wish you (Rachel's mother) could meet these people. Maybe, hopefully, someday you will." ---
रेचल के बारे मे और जानने के लिए ये लिंक देखें.
http://www.guardian.co.uk/world/2003/mar/18/israel1
Monday, 17 March 2008
अतुल्य भारत
Sunday, 16 March 2008
ग़रीबी पैसों की नही दिल की है।
एड्स का नाम आते ही एक सिहरन सी पैदा होती है। हम सब बस खुश हो लेते हैं की उपर वाले ने हमें बचाए रखा है, और कुछ दुखी भी हो जाते है उनके लिए जो इस भयानक बीमारी के शिकार हैं। बस हो गयी हमारी चिंता ख़त्म। कुछ ऐसी ही सोच थी मेरी, पर जिस दिन इस बीमारी से ग्रसित छोटे छोटे बच्चों से सामना हुआ तो अपने उपर बहुत क्रोध आया। कुछ समय पहले काम के सिलसिले में मैंगलूर स्थित एड्स से पीड़ित बच्चों के अनाथालय जाना हुआ। काम था एक ऐसी डॉक्युमेंटरी बनाने का जिसके ज़रिए कुछ फंड उगाहा जा सके। काम के दौरान ही एक कर्मचारी की बात ने मुझे झकझोर कर रख दिया। मैने कहा हम कर ही क्या सकते है इन बच्चों के लिए, ज़्यादा से ज़्यादा कुछ पैसे दे सकते है। उसने जो उत्तर दिया वो मैं वैसा ही लिख रहा हूँ, " सर ग़रीबी पैसों की नही ग़रीबी दिल की है, पैसे देने वाले तो बहुत है पर इन बच्चों के साथ समय गुजारने वाले बेहद कम। ये बच्चे सिर्फ़ कुछ समय चाहते है, कोई इनके साथ आए और खेले।" हम अपनी दुनिया मे मस्त जीते है, इंटेलेक्चुयल टाइप जमाने भर की चिंता लिए। ज़्यादा हुआ तो कुछ चर्चा कर ली और चिंता जाहिर कर दी। जिस अनाथालय की मैं बात कर रहा हू उसका नाम 'संवेदना' है। संवेदना से अब मेरा गहरा नाता है, हर हफ्ते वाहा जाने की कोशिश करता हू। ना तो मैं उनकी भाषा समझ पता हू ना वो मेरी, पर एक रिश्ता है। अगर हम अपनी व्यस्त ज़िंदगियों से कुछ समय निकाले तो कितनी खुशियाँ बाँट सकते हैं। संवेदना के बारे में आगे भी लिखता रहूँगा।
हॉकी और टेलीविज़न
Tuesday, 11 March 2008
बी पी ओ और शेट्टी साहब
आज सुबह की सैर के बाद शेट्टी साहब के मिज़ाज़ कुछ बदले हुए नज़र आ रहे थे। हमने गुस्ताख़ी माफ़ कहते हुए पूछ ही लिया, क्या हुआ कुछ मूड खराब है क्या? इतना सुनते ही शेट्टी साहब बरस पड़े, बोले आमा यार आजकल की पीढ़ी को हो क्या गया है, सब सब के सब नलायक है। हमने कहा बात क्या हुई ये तो बताओ। पता चला पार्क मे आज कुछ लड़कों से बहस हो गयी थी, शेट्टी साहब गुस्से से बोले, पता है पत्रकार महोदय ये नौजवान समझते है की बिना बीपीओ और टेक कंपनियों के मंगलोर पिछड़ा हुआ था। बिना मैकडोनल्ड और पिज़्ज़ा हट के भी कोई शहर होता है क्या? कुछ नौजवान आज पार्क मे इसी मुद्दे पर बात कर रहे थे और अपने शेट्टी मियाँ आदत के अनुसार कूद गये बीच मे बहस करने, और जब नयी उमर के लड़कों ने पटखनी दे दी तो तुनक कर घर वापस आ गये। बेचारी बीवी को उनके कोप का शिकार बनना पड़ता पर आज निशाने पर हम थे। बोले आप मीडिया वाले तो कुछ मत बोलिए, कभी रायचुर या गुलबर्गा की खबरें छापते हो? किसानों का क्या हाल है, इससे तुम्हे क्या मतलब बस मंगलोर और बंगलोर का नगाड़ा पिटो। मैने कहा, सर ऐसा नही है आज का मीडिया बड़ा जागरूक है, गुस्से में लाल होकर बोले क्या खाक जागरूक हैं तुम्हारा मीडिया, नाग नागिन की कहानी दिखाते रहते हो। हमने सोचा की वो मीडिया की और भद्द पिटें बात घुमा दी जाए। हमने कहा क्या ग़लत है, अगर नौजवानों को रोज़गार मिल रहा है, हमे बी पी ओ को और प्रोत्साहन देना चाहिए। जल्द ही पता चल गया की फिर से निशाना ग़लत लगा है, अबकी बार गुस्से से सतरंगी होकर बोले, तुम्हे क्या पता की वो सारे पुराने सिनेमा हाल और सागर कैफ़े की कीमत जिनकी जगह मालों और ब पी ओ ने ले ली है, कभी वहाँ कन्नड़ साहित्यकारों और बुद्धजिवियों की मंडली लगा करती थी। पुरानें दिनों की याद ने शायद शेट्टी साहब को कुछ ठंडा कर दिया था, एक लंबी सांस ली और बोले हम कर भी क्या सकते है, बस तमाशबीन बने रहेंगें। मैने सोचा मामला गरम हो रहा है तो तो फिर कुछ नयी बात उठाई जाए। यूँही पूछा क्या खबर है आज अख़बार में? आज दिन ही खराब था, फिर से गुस्से में बोले, वही राज ठाकरे की पार्टी का तमाशा, इसको भगाओ उसको भागाओ, अरे कोई बी पी ओ को भागने का तरीका तो बताए।इससे पहले की वो मेरी तरफ निशाना साधते मैने कहा कुछ काम है आप से शाम को मिलूँगा।
Sunday, 9 March 2008
ग्रेट अमेरिकन ड्रीम
द टेलीग्राफ में छपी एक खबर ने ग्रेट अमेरिकन ड्रीम के बारे में सोचने पर मज़बूर कर दिया है. खबर के अनुसार अमेरिका में सैलाब के बाद पुनर्निर्माण कार्य में लगे भारतीय मज़दूरों की दशा अत्यंत दयनीय है. अमेरिका में एशिया के मज़दूरों की मानवाधिकारों के लिए लड़ाई जारी है. हमारे टीवी वालों ने अमेरिका के चुनावों पर तो खूब गला साफ किया, पर इस खबर को समय देना शायद घाटे का सौदा रहा होगा. पिछले कुछ महीनों में भारतीय प्रोफेशनल्स और छात्रों की हत्या की खबरें लगातार आती रहीं हैं. क्या ग्रेट अमेरिकन ड्रीम धुंधला हो रहा है खबर का पता--http://www.telegraphindia.com/1080308/jsp/foreign/story_8994936.jsp
Friday, 7 March 2008
शुभारंभ
कई दिन सोचने के बाद आज ब्लॉग शुभारंभ करने की ठानी, रवि रतलामी जी के ब्लॉग से किसी तरह हिन्दी टाइपिंग के औज़ार प्राप्त किए और सोचा एक पोस्ट लिखी जाए. चूँकि आज ब्लॉग शुरू कर रहा हू, तो एक शुरुआत के बारे ही मे बताता हू. बात है सन 2005 की, शुरुआत मेरे पत्रकार बनने की. कॉलेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद एक बड़े अँगरेज़ी अख़बार मे पूरे जोशो खरोश के साथ पहुचा काम करने. आखों मे सपना था कुछ नया करने का और दुनिया बदल देने का, गौर फरमाइए ये सपना हर पत्रकारिता के छात्र का होता है. पहले ही दिन मुझे इस बात का आभास हो गया की साहब ये तो कुछ अजब ही मायाजाल है. काम दिया गया एक खबर को पठनीय बनाने का, खूब दिल लगा कर किया और अंत मे खूब खुश था की कॉलेज मे सीखी सारी तकनीकी बातों का आज प्रयोग किया है. फिर एडिटर महोदया ने अपने केबिन मे बुलवाया और ऐसा झाड़ा की सारा जोश जाता रहा, कहा तुम लोंग क्या सोचते हो की कॉलेज मे पढ़ लेने से पत्रकार बन जाओगे, कई साल लग जाते है सीखने में. अगले दिन वही खबर अख़बार मे देखी तो लगभग वैसे ही छपी थी जैसी हमने बनाई थी. अब हम सोंच मे थे की क्या हमारी ग़लती है की हमने कॉलेज मे सीखा. आज से दस साल पहले पत्रकारिता पढ़ाने वाले कॉलेज कम थे पर जब आज है तो हमारे आदरणीय एडिटर्स को अपनी धारणा बदलनी होगी. ये सही है की अनुभव के साथ ही रंग चढ़ता है , पर अगर पत्रकारिता के छात्रों को आदर से देखा जाए तो निशित ही परिणाम बेहतर होंगे और ज़्यादा से ज़्यादा युवा इस पेशे को अपनाएँगे.